Sunday, August 10, 2008

I wrote this post in hindi for chavanni chap
it is here- so that it will be availabe to all the persons who read my post.
I hope you will enjoy it!

Monday, July 28, 2008
हिन्दी टाकीज:फिल्में देखना जरूरी काम है-रवि शेखर

रवि शेखर देश के जाने-माने फोटोग्राफर हैं.उनकी तस्वीरें कलात्मक और भावपूर्ण होती हैं.उनकी तस्वीरों की अनेक प्रदर्शनियां हो चुकी हैं.इन दिनों वे चित्रकारों पर फिल्में बनाने के साथ ही योग साधना का भी अभ्यास कर रहे हैं.चित्त से प्रसन्न रवि शेखर के हर काम में एक रवानगी नज़र आती है.उन्होंने हिन्दी टाकीज सीरिज में लिखने का आग्रह सहर्ष स्वीकार किया.चवन्नी का आप सभी से आग्रह है की इस सीरिज को आगे बढायें।


प्रिय चवन्नी,

एसएमएस और ईमेल के इस जमाने में बरसों बाद ये लाइनें सफेद कागज पर लिखने बैठा हूं। संभाल कर रखना। तुमने बनारस के उन दिनों को याद करने की बात की है जब मैं हिंदी सिनेमा के चक्कर में आया था।

और मुझे लगता है था कि मैं सब भूल गया हूं। यादों से बचना कहां मुमकिन हो पाता है - चाहे भले आपके पास समय का अभाव सा हो।

सन् 1974 की गर्मियों के दिन थे। जब दसवीं का इम्तहान दे कर हम खाली हुए थे। तभी से हिंदी सिनेमा का प्रेम बैठ चुका था। राजेश खन्ना का जमाना था। परीक्षा के बीच में उन दिनों फिल्में देखना आम नहीं था। तभी हमने बनारस के 'साजन' सिनेमा हाल में 'आनंद' पहली बार देखी थी और चमत्कृत हुआ था।

हम जिस समाज में रहते हैं उसके चरित्र हमें बनाते हैं। आज मुड़कर देखता हूं - तो दो-तीन ऐसे मित्र हैं जिनके प्रभाव से मैं हिंदी सिनेमा से परिचित हुआ।

सबसे पहली फिल्म हमने अपने बाबूजी के साथ देखी थी -'दो बदन' मनोज कुमार की निशांत सिनेमा में तब मैं चौथी क्लास में पढ़ता था। उसके बाद हर साल परीक्षा के बाद बाबू जी एक फिल्म देखने ले जाते थे। इस सिलसिले में दूसरी फिल्म थी -'अनुपमा'। उस समय 'अनुपमा' मेरे बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ी थी। बए एक गीत था -'धीरे -धीरे मचल ऐ दिले बेकरार कोई आता है' फिल्म देखने के बाद गीत से एक दोस्ती सी हो जाती थी। जब रेडियो पर किसी देखी फिल्म का गाना आता था तो आवाज थोड़ी बढ़ा दी जाती थी।

बनारस उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर एक महत्वपूर्ण शहर है। वहां ढेरों सिनेमा हॉल थे -दीपक, कन्हैया, निशात, चित्रा, गणेश टाकीज मुख्य शहर में थे। कन्हैया बिल्कुल गोदौलिया चौराहे के पास और चित्रा चौक में। चित्रा पहली मंजिल पर था। चित्रा सिनेमा सुबह के शो में विदेशी फिल्में दिखाया करता था। जिसे देखने के लिए शहर के पढ़े- लिखे लोग इकट्ठे होते थे। उस वक्त यह पता करना मुश्किल होता था कि कौन सी अंग्रेजी फिल्म अच्छी होगी।

उस समय सिनेमा के दर अपनी जेब पर ज्यादा जोर नहीं डालते थे। दो की पाकेट मनी (जो कि एक रुपये हुआ करती थी) बचा कर एक फिल्म देखी जा सकती थी। एक रुपये नब्बे पैसे में फर्स्ट क्लास में बैठकर अनगिनत फिल्में देखी है मैंने। तभी तो आज कल फिल्मों के एक टिकट के लिए सौ रुपये का नोट निकालना जरा अच्छा नहीं लगता।

उस जमाने में गाने रेडियो पर सुने जाते थे। अमीन सायानी का बिना गीत माला रेडियो का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम हुआ करता था। अमीन भाई बीच- बीच में फिल्म पत्रकारिता भी किया करते थे। बिनाका गीत माला से मेरा पहला परिचय मेरे जीजा जी ध्रुवदेव मिश्र ने कराया था। वे मेरे जीवन में आने वाले पहले रसिक व्यक्ति थे - जिनको जीवन में आनंद लेना मजा लेना आता था।

उनके साथ मैंने राजेश खन्ना की 'हाथी मेरा साथी' देखी थी। तब मुझे लगा था . मैंने जीवन की सबसे अच्छी फिल्म देखी है।

पर सिनेमा का चश्का लगा था मुझे अपने मामा जी से गर्मियों की छुट्टियों में मैं बनारस से निकल जाया करता था- गोरखपुर। गोरखपुर से सटे हल्दिया पिघौरा गांव में मेरे मामा जी रहा करते हैं। तब नाना- नानी भी थे। पिघौरा से गोरखपुर लगभग 13 किलोमीटर है। और सायकिल से रोज हमलोग शहर जाया करते थे। शहर में छोटे- बड़े कई काम हुआ करते थे - मामा जी के और उसी में समय निकाल कर एक महीने तक हम लोग एक फिल्म भी देखा करते थे। इस तरह पहली बार हमने एक महीने में अठ्ठाइस फिल्म देख डाली थी। यी वीडियो के आने के पहले की बात है। और हमें स्वयं आशचर्य हुआ करता था।

गोरखपुर में सिनेमा रोडर पर ही तीन- चार सिनेमा हॉल थे। बाकी सायकिल हो तो कुछ भी दूर नहीं। मामा जी दिलीप कुमार के फैन थे। और मुझे पहली बार दिलीप कुमार की फिल्मों में रस लेना उन्होंने ही सिखाया था। तब पुरानी फिल्में भी सिनेमाघरों में धड़ल्ले से चला करती थी, वो भी रियायती दरों पर।

बनारस लौटा तो नये कॉलेज में दोस्त बने और फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया। मुझे लगता था कि - फिल्में देखना एक जरूरी काम है ताकि फिल्मों की जानकारी होनी चाहिए। यह सामान्य ज्ञान जैसा था और हम घंटों फिल्मों की चर्चा करते रहते थे।

'आनंद' सिनेमा शहर से थोड़ा दूर था उन दिनों। वहां पर 'रोटी, कपड़ा और मकान' रिलीज हुई थी। जिसका बेहद लोकप्रिय गीत था -'बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी'।

(यह गाना आज भी आकाशवाणी पर बैन है) धीरे-धीरे शहर के बीच पुराने सिनेमाहाल अपने रखरखाव की वजह से घटिया होते होते गये, -कुर्सियां टूट गयीं। उनमें खटमल भी होते थे। जगह-जगह पान के पीक होना तो बनारस की शान थी। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। फिल्म देखने के सुख पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

लहुरा बीर पर प्रकाश टॉकीज था। जिसमें 'बॉबी' रिलीज हुई थी। सड़क के उस पार क्वींस कॉलेज था। जहां हम पढ़ाई कर रहे थे। पता चला एक दिन क्वींस कॉलेज के प्रिंसिपल ने वहां धाड़- मार दी और स्कूल यूनिफार्म में सिनेमा देख रहे बच्चों को पकड़ लाए।

उसके बाद ही आयी थी 'शोले' आनंद सिनेमा हाल में। फिल्म हिट होने का क्या मतलब होता है वह किसी छोटे शहर में ही महसूस किया जा सकता है। शहर का शायद ही ऐसा कोई मानव हो जिसने 'शोले' और 'जय संतोषी मां' न देखी हो। दो फिल्में लगभग एक साल तक एक ही हॉल में जमी रही। दोनों फिल्मों की जबरदस्त 'रिपीट बैल्यू' थी। हमने भी 7 या 8 बार 'शोले' हॉल में देखी होगी - कभी किसी के साथ कभी किसी के साथ।

'जय संतोषी मां' देखने मैं नहीं गया।

'साजन' सिनेमा हॉल का जिक्र मैं कर चुका हूं। उसके बाद नदेसर पर 'टकसाल' खुला और लंका पर 'शिवम' 'शिवम' में काशी हिन्दू विशविद्यालय के छात्रों की भीड़ रहा करती थी। नदेसर शहर के दूसरे छोर पर था - वहां फिल्म देखना नहीं हो पाता था।

अस्सी पर एक सिनेमा हाल था 'भारती' वहां अच्छी अंग्रेजी फिल्में चलती थीं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नजदीक होने के कारण वहां भीड़ भी रहती थी। बीच में ऐसा भी होता था कि 'भारती' में लगने वाली कोई भी फिल्म देखी जा सकती है। वहां खचाखच भरे हॉल में हमने देखी थी। - 'इण्टर द ड्रैगन', 'टॉवरिंग इनफर्नो' तुम्हें याद होगा - वी एच एस टेप का जमाना उसके बाद आया। जनता ने सिनेमा हॉल जाना बंद कर दिया। जगह.जगह कैसेट लायब्रेरी खुल गयी।

मेरे एक मित्र हैं - संजय गुप्ता। उनकी अपनी वीडियो लायब्रेरी थी। हमलोग वीएचएस कैमरे से शादी भी शूट करते थे। तब एक-एक दिन न जाने कितनी फिल्में उसके ड्रॉइंग रूम में देखी होगी।

तब भी हॉल में जाकर फिल्म देखना हमेशा अच्छा लगता था। इस बीच भेलूपूर में दो नए हाल आकर पुराने हो गये थे - गुंजन और विजया।

गुंजन में हमने 'मदर इंडिया' पहली बार देखी थी। मेरे नए नए जवान होने के उस दौर में श्याम बेनेगल की फिल्मों की भी यादें हैं। विश्वास नहीं होता अब 'अंकुर', 'निशांत', 'भूमिका', 'मंथन', 'मंडी' जैसी फिल्मों को एक छोटे शहर में सिनेमा हॉल में देखा जा सकता था। ओर धर्मेन्द्र-हेमामालिनी, रेखा, अमोल पालेकर, संजीव कुमार, राजेन्द्र कुमार, वैजन्ती माला-दिलीप कुमार राज कपूर, देव आनंद जैसे नाम आप के जीवन पर किस कदर प्रभावित करते थे।

हिंदी सिनेमा और हिंदी गीतों का प्रेमी प्रेम सीखता है - सितारों से। रफी, किशोर, लता, आशा, गुलजार, मजरूह, आ डी, साहिर, मदन मोहन से।

मुझे पक्का भरोसा है आज भी अपने देश के सूदूर कोनों में लोग जवान हो रहे होंगे। वैसा ही प्रभाव होगा। वैसी ही सनक होगी। बस सितारों के नाम अलग होंगे - शाहरुख, सलमान, संजय दत्त, रानी, करीना, दीया, कंगना, आमिर ... इत्यादि।

तुम्हारा
रवि

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